आखिर कौन ले आता है गरीब को सड़क पर बार बार...?

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आखिर कौन ले आता है गरीब को सड़क पर बार बार...?


--डॉ सुधांशु
【राष्ट्रीय अध्यक्ष,पीपल्स ग्रीन पार्टी】





जयपुर--- खाते पीते, मध्यम वर्गीय या अमीर कितने सभ्य और अनुशासित होते हैं, अपने घर के भीतर चुपचाप लॉक डाउन में हैं।

समझने में आ गया होगा आपको, कौन देशभक्त हैं और कौन देश द्रोही!

लोगों का कौतूहल, गुस्सा और नाराज़गी हैं इन लोगों पर जो बार बार बाहर आ जाते हैं। कभी यमुना के ब्रिज पर तो कभी सूरत तो कभी बांद्रा या फिर पतली गलियों में या गंदी बदबूदार गलियों और चौराहों पर ये लोग अपने बिलों से बार बार बाहर आ जाते हैं।


पुलिस प्यार से समझाती हैं या फिर डंडे से किन्तु ये कहीँ न कहीं से निकल ही पड़ते हैं।

अब सवाल ये हैं कि इनको कौन बाहर ले आता हैं? क्या ये इनका देश द्रोह ही हैं वाकई या ये पागल संक्रमित होकर मर जाना चाहते हैं?

मैंने जवाब ढूंढने की कोशिश की, मैंने उसकी आंख में झांकने की कोशिश की, उसके विद्रोह और असभ्य बर्ताव को पहचानने की कोशिश की... किन्तु ये क्या? वहाँ तो भूख झलक रही थी। हाँ, उसकी आंखे रोटी तलाश रही थी। उसके कान में पुलिस के डंडे की आवाज नहीं पहुँच रही थी क्योंकि उसमें उसके बिलखते बच्चों की गूंज थी। उसे कोरोना के समाचार नहीं मिल पाए क्योंकि उसने अखवार के कागज़ में रोटी को छुपा लिया था। वो कोरोना नहीं भूख से किसी परिजन के गुजर जाने के डर से बदहवास इधर उधर निकल रहा हैं। वो इस डर को खुद से छिपा रहा हैं और बीबी या माँ रोटी के लिए पूछ न बैठे इसलिए घर से खो जाने को बाहर रोड पर आकर छुप जाना चाहता हैं।

किन्तु वो हर दिन ऐसा नहीं था। भिखारी न समझें उसे वो तो ज़मीर दार इंसान था। मजदूर था, दस्तकार था या दिहाड़ी वीर था। एक तारीख से 30 तारीख तक वो भी इज्जत से परिवार पालता था। उसे भी बीबी और बच्चें अपना हीरो मानते थे और माँ को फक्र होता था। किन्तु लॉक डाउन 25 को हो गया। महीने का मेहनताना 30 तारीख या उसके बाद ही मिलता था। इस बार वो दुकान, गद्दी और फैक्ट्री पर सरकारी लॉक लग गया और प्रधानमंत्री ने वादा भी किया और आदेश भी दिया कि मेहनताना पूरा मिलेगा, नौकरी बचेगी और फिर से अच्छे दिन आएंगे।

अब जो सभ्य समाज अनुशासन से घर के भीतर बैठा हैं। वो लॉक डाउन में कब आपको तनख्वाह या मजदूरी बांटने जाता हुआ दिखाई दिया। कितने पास बने की मजदूरी देंगे या कितने मजदूरों को पैसा लेने के लिए परमिशन मिली। इन सड़कों पर भागते मजदूरों को उनकी मजदूरी की आस हैं। उन्हें आपके फूड पैकेट नहीं उनके ज़मीर के पैसे की आस हैं। और जिनसे आस हैं उनकी मजदूरी मिलने की...

वो पढ़े लिखे, सभ्य और धनी, राष्ट्र भक्त मोबाइल बंद कर डीडी वन पर लॉक डाउन मना रहे हैं।

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