ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे (1)
प्रस्तुति:- मीडिया केसरी नेटवर्क
आज से हम आप सभी प्रबुद्ध पाठकों के लिए वरिष्ठ लेखक, साहित्यकार नरेंद्र बोहरा द्वारा लिखित श्रृंखला- 'ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे' की पहली कड़ी प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
इस श्रृंखला में फिल्म जगत की उन हस्तियों पर चर्चा की गई है जिन्होंने बड़ी सफलता प्राप्त की लेकिन छोटी उम्र में संसार को अलविदा कह गए। इनमें कलाकारों के अलावा फिल्मों से जुड़े अन्य लोग भी शामिल किए गए हैं जैसे निर्देशक, गीतकार, संगीतकार आदि।
नरेंद्र बोहरा राजकीय सेवा में उच्च अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हैं। पिछले कई वर्षों से प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में इनके लिखे लेख प्रकाशित होते आए हैं।
बोहरा जी के लेखन का प्रिय विषय भारतीय सिनेमा व हॉलीवुड रहा है जिसके हर पहलू व विषय की गहरी जानकारी से युक्त लेख पढ़ने के लिए आपको हम निरंतर उपलब्ध करवाते रहेंगे।
प्रस्तुत है पहली कड़ी-
नरेंद्र बोहरा ✍🏻
ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे (1)
श्रृंखला का आरंभ मैं कर रहा हूँ तीस और चालीस के दशक के बहुत बड़े स्टार चंद्रमोहन से।उस दौर में वे मोतीलाल के बाद सबसे ज्यादा फीस लेने वाले अभिनेता थे। मोतीलाल 45 हजार लेते थे और चंद्रमोहन 40 हजार।
मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में जन्मे चंद्रमोहन अपनी बड़ी ग्रे आंखों, आवाज मॉड्यूलेशन और डायलॉग डिलीवरी के लिए जाने जाते थे। उनकी आँखें वी शांताराम की 1934 की फ़िल्म अमृत मंथन में शुरूआती सीक्वेंस से बनीं , जो उनकी पहली फ़िल्म भी थी। यह नव स्थापित प्रभात फिल्म्स स्टूडियो में बनी पहली फिल्म थी , और हिंदी और मराठी दोनों में बनी थी। मोहन को उनकी भूमिका के लिए राजगुरु की भूमिका के लिए प्रशंसा मिली और उन्होंने उस समय के विख्यात खलनायक के रूप में खुद को स्थापित किया।
मोहन बाद में सोहराब मोदी की पुकार में सम्राट जहांगीर के रूप में दिखाई दिए । महबूब खान की हुमायूँ में रणधीर सिंह के रूप में और मेहबूब खान की रोटी में सेठ लक्ष्मीदास के रूप में।
उनकी अंतिम प्रस्तुति रमेश सहगल की 1948 की फिल्म शहीद में थी । राय बहादुर द्वारका नाथ के रूप में, उन्होंने राम के पिता की भूमिका निभाई, जिसे दिलीप कुमार ने चित्रित किया था । इस फिल्म में मोहन का चरित्र शुरुआत में ब्रिटिश सरकार का समर्थन करता है लेकिन बाद में स्वतंत्रता संग्राम का पक्षधर हो जाता है। चंद्र मोहन की लगभग उसी समय की फिल्म एक धार्मिक फिल्म रामबन (1948) थी, जिसमें उन्होंने राक्षस सम्राट रावण की भूमिका निभाई थी।
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वह के.आसिफ की मुग़ल-ए-आज़म में मुख्य भूमिका निभाने के लिए मूल पसंद थे , लेकिन उनकी असामयिक मृत्यु के कारण फिल्म को फिर से शुरू किया गया था क्योंकि लीड के रूप में उनके साथ दस रीलों की शूटिंग की गई थी। फिल्म अंततः 1960 में रिलीज़ हुई।
सफलता की ऊंचाइयों को छूने वाले चंद्रमोहन को कुछ तो उनके स्वभाव के कारण और कुछ ज्यादा शराब पीने की लत के कारण फिल्में मिलनी बंद हो गई।बंगले से वे चाल में रहने को मजबूर हो गए। एक दिन मोतीलाल उनसे मिलने गए तो वे स्कॉच की बोतल में डालकर ठर्रा पी रहे थे।जब मोतीलाल बातचीत करके वापस जाने लगे तब चंद्रमोहन ने कहा,माफ करना मोती मैंने तुम्हें शराब के लिए नहीं पूछा क्योंकि मैं ठर्रा पी रहा हूं। मोतीलाल ने स्टूडियो पहुंचते ही अपने ड्राइवर के साथ स्कॉच की एक पूरी पेटी चंद्रमोहन के लिए भिजवाई।
किशोर साहू ने अपनी जीवनी में लिखा कि जब वे वीर कुणाल फिल्म बना रहे थे तब सम्राट अशोक की भूमिका में वे चंद्रमोहन को लेना चाहते थे। उन्होंने फोन करके कहानी सुनाने के लिए समय मांगा तो चंद्रमोहन ने कहा, मेरी फीस चालीस हजार रुपए है। एडवांस लेकर आ जाना और कहानी सुना देना।इस बात से आहत किशोर साहू ने उनकी जगह मुबारक को ले लिया। कुछ वर्ष बाद जब चंद्रमोहन का बुरा दौर आरम्भ हो गया तब एक बार अशोक कुमार के ऑफिस में साहू को वे मिल गए और याचना करने लगे कि उनकी किसी फिल्म में काम दे दें लेकिन साहू ने दिया नहीं।
चन्द्र मोहन ने मुम्बई में अपने बिलखा हाउस स्थित आवास पर 2 अप्रैल 1949 को 42 साल की उम्र में तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया।
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