बेबाक कलम-- इंजीनियर, डॉक्टर बनाने के नाम पर "सुसाइड फैक्ट्री" है कोटा !

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शिक्षा नगरी का कालाभयावह सच उजागर करता विशेष आलेख


पंकज ✍🏻

संवाददाता

Media Kesari

Kota

आख़िर क्या वज़ह पड़ गई जो नाम के आगे "फैक्ट्री' लगाना पड़ गया, कोटा शिक्षा नगरी एक व्यावसायिक मॉडल बनकर रह गया और जिंदगी बनाने के नाम पर दम तोड़ रहे बच्चों के ख्वाब यहाँ पर। पिछले 15 दिनों में 4 मौत, 8 महीने में 21 बच्चों की मौत और दस सालों में 180 से ज्यादा मौतें अब तक हो चुकी है, क्या मजाक चल रहा है! कामयाबी की सीढ़ी चढ़ने की यह कैसी जानलेवा रेस? 30 हजार करोड़ की कोचिंग इंडस्ट्री बच्चों की मौत की वज़ह भी नहीं पता लगा पाया इतने सालों तक कितना हास्यास्पद है या फ़िर अपने साम्राज्य के पतन का डर है? 

Media Kesari  Kota  आख़िर क्या वज़ह पड़ गई जो नाम के आगे "फैक्ट्री' लगाना पड़ गया, कोटा शिक्षा नगरी एक व्यावसायिक मॉडल बनकर रह गया और जिंदगी बनाने के नाम पर दम तोड़ रहे बच्चों के ख्वाब यहाँ पर। पिछले 15 दिनों में 4 मौत, 8 महीने में 21 बच्चों की मौत और दस सालों में 180 से ज्यादा मौतें अब तक हो चुकी है, क्या मजाक चल रहा है! कामयाबी की सीढ़ी चढ़ने की यह कैसी जानलेवा रेस? 30 हजार करोड़ की कोचिंग इंडस्ट्री बच्चों की मौत की वज़ह भी नहीं पता लगा पाया इतने सालों तक कितना हास्यास्पद है या फ़िर अपने साम्राज्य के पतन का डर है?


कोचिंग वालों ने मोटी फीस और होर्डिंग के नाम पर बच्चों के सपनों को बाज़ार में तब्दील कर दिया। जहाँ पास होने की संभावना महज़ 2 प्रतिशत है लेकिन फेल होने या फिर अपने सपनों के साथ खुद ख़त्म होने की संभावना बढ़ती जा रही है।कोचिंग की फीस जमा करवाने के बाद…अगर बच्चा घर जाना चाहे किसी भी कारण से तो फीस वापिस करने की ज़वाबदेही शून्य ही दिखाई देती है.. शायद पॉलिसी नाम का डमरू कोचिंग वालों के पास है। साल-2023 की शुरूआत में 21 मौत... अधूरे सपनों के साथ अपनी जिंदगी को अलविदा कह चुके हैं “खत में लिखा मुझे माफ करना आपने बहुत पैसे खर्च किए शायद मुझसे नहीं हो पाएगा”…वाल्मिकी भी पढ़ाई का दवाब नहीं सहन कर पाया,वाटर कूलर के पाइप से अपने सपनों का गला गोंट दिया...किसी के घर का चिराग बुझ गया। क्या नैतिक दबाव कम करने की जिम्मेदारी कोचिंग वालों की नहीं है? हर साल 3 लाख से ऊपर छात्र कोटा आते हैं कोचिंग फीस और हॉस्टल का सालाना खर्च लगभग तीन लाख रुपए से ऊपर तक पहुँच जाता है लेकिन सरकार की तरफ से फीस रेगुलेट करने जैसी कोई तकनीक नहीं है,जिससे मां-बाप के कंधो का आर्थिक भार कम हो सके।

हाल ही में मुख्यमंत्री संवाद कार्यक्रम में आए सभी शिक्षकों ने दो बातों पर बहुत जोर दिया मोटिवेशन और काउंसलिंग पर। क्यों जरूरत पड़ गई सवाल गंभीर था, क्या हम धक्के से बच्चों को पढ़ाना चाह रहे हैं या फिर राजी खुशी ? खाना-खाने, खेलने, मोबाइल चलाने, टी.वी देखने, दोस्तों से बात करने के लिए क्या मोटिवेशन की जरूरत पड़ी कभी...शायद जवाब नहीं। गांव के माहौल में रहने वाला स्कूली छात्र तनाव जैसी बीमारी से कोसों दूर है फिर कोटा आने वाला बच्चा तनाव,अवसाद,सुसाइड जैसी बीमारी की जकड़ में कैसे आ गया है? क्या मौजूदा शिक्षा व्यवस्था ने बच्चों को टूलकिट बना कर रख दिया है या फ़िर शिक्षा नगरी बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा कर रही है? घर से दूर घर जैसा खाना तो दिखाई देता है लेकिन दोस्त के नाम पर दोस्त नहीं प्रतिद्वंदी ही नज़र आता है। क्यों शिक्षकों ने नैतिक दवाब कम करने जैसे गंभीर मुद्दे को अनदेखा कर दिया,संवाद कार्यक्रम में?

 यह अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है या फ़िर बच्चों को बचाने की ?

हाल ही में मुख्यमंत्री संवाद कार्यक्रम में आए सभी शिक्षकों ने दो बातों पर बहुत जोर दिया मोटिवेशन और काउंसलिंग पर। क्यों जरूरत पड़ गई सवाल गंभीर था, क्या हम धक्के से बच्चों को पढ़ाना चाह रहे हैं या फिर राजी खुशी ? खाना-खाने, खेलने, मोबाइल चलाने, टी.वी देखने, दोस्तों से बात करने के लिए क्या मोटिवेशन की जरूरत पड़ी कभी...शायद जवाब नहीं। गांव के माहौल में रहने वाला स्कूली छात्र तनाव जैसी बीमारी से कोसों दूर है फिर कोटा आने वाला बच्चा तनाव,अवसाद,सुसाइड जैसी बीमारी की जकड़ में कैसे आ गया है? क्या मौजूदा शिक्षा व्यवस्था ने बच्चों को टूलकिट बना कर रख दिया है या फ़िर शिक्षा नगरी बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा कर रही है? घर से दूर घर जैसा खाना तो दिखाई देता है लेकिन दोस्त के नाम पर दोस्त नहीं प्रतिद्वंदी ही नज़र आता है। क्यों शिक्षकों ने नैतिक दवाब कम करने जैसे गंभीर मुद्दे को अनदेखा कर दिया,संवाद कार्यक्रम में?   यह अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है या फ़िर बच्चों को बचाने की ?


कोटा जंक्शन से शुरू हुए विज्ञापन के बाज़ार ने बच्चों को भीड़ में लाकर खड़ा कर दिया। सपनों की भीड़ में बच्चे कब भेड़ बन गए शायद कोचिंग वाले ही बता सकते हैं, अब तो। साप्ताहिक टेस्ट और बच्चों के सपनों का मूल्यांकन बच्चों को प्रतिस्पर्धा में बदल रहा है जहाँ बच्चों में खुद को कमतर आंकने की हीन भावना का जन्म होता है। अपने स्कूल में टॉप करने वाला छात्र कोचिंग के बच्चों को बीट नहीं कर पाता और टेस्ट मेें गिरता नंबर का स्तर कुछ ही महीनों के अंदर बच्चे को मानसिक दवाब में जकड़ लेता है। शिक्षा-व्यवस्था में नंबर सिस्टम के कारण परीक्षा में नंबर का कम आना…क्या बच्चों की प्रतिभा का सही आंकलन कर पा रहा है?

मछली पेड़ पर चढ़ नहीं सकती है लेकिन मछली पानी में दौड़ लगा सकती है यह मछली का गुण है। इंसान को पता है मछली की प्रकृति के बारे में। क्या माता-पिता ने बच्चों के दिल की आव़ाज सुनी या फ़िर समाज की सोच, अपनी इच्छाओं को बच्चे के अंदर इंजैक्ट करने का अपराध कर दिया? अपनी इच्छाओं का महल बच्चे के सिर पर खड़ा कर समाज में स्टेटस के खोखले वर्चस्व की अभिभूति प्राप्त करना चाहते है। क्या भावनात्मक दवाब बच्चों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहा है?


किसी भी कोचिंग में प्रवेश के लिए काफी मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। अंतिम बैच बच्चों के अच्छे नंबरों के आधार पर ही मिलता है। टॉपर बच्चों के लिए अलग से बैच की व्यवस्था होती है। स्टार फैकल्टी टीम मशक्कत करती है लेकिन टॉपर बच्चों के लिए ताकि अच्छी रैंक निकल सके। मध्यम-कमजोर छात्र सिर्फ़ फीस देकर अगले साल एडमिशन के लिए बाजार को तैयार करने में अपनी भूमिका निभाता है। इसका एहसास बच्चों को हो जाता है। परीक्षा में नंबर का कम आना, घरवालों के पूछने पर सब कुछ सही बताना, शिक्षक का कक्षा में आगे बढ़ जाना...बच्चे का पीछे छूट जाना। कच्ची उम्र का घड़ा जितना चिकना होता है उसको संभालना उतना ही मुश्किल हो जाता है। मुश्किल घड़ी में बच्चा पीछे भी नहीं हट सकता है। अपने घरवालों को बता सकें मैं जिंदगी में कुछ ओर करना चाहता हूँ...जब तक काफी देर हो चुकी होती है। बिल्कुल सफेद झूठ कोचिंग की तरफ से परोसा जाता है कि सभी बच्चों पर समान ध्यान दिया जाता है। पैसे बनाने के लिए एक ही कक्षा में लगभग 300-400 बच्चों की भीड़ बैठाना कितना जायज है? क्या शिक्षक सभी बच्चों पर समान ध्यान दे पाता है? बगैर पहचान पत्र के शिक्षक अपनी कक्षा के बच्चों के नाम बता सकता है? शिक्षक ही शिक्षा का कत्ल कर रहा है,कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी यहाँ पर। 


सरकार का फ़ेल्योर है निजी कोचिंग, मौत की ख़बर सुन कर सरकार हर साल जागती है और कमेटी बनाकर सो जाती है। एंटी सुसाइड रोड, स्टूडेंट्स सेल, काउंसलिंग जैसे कदम बाहर से जितने सराहनीय है अंदर से उतने ही ख़ोखले हैं। बच्चों की मौत सरकार के दावों की पोल खोलती नज़र आती है। हॉस्टल के नाम पर वार्डन जेलर की भूमिका निभा रहा है। बच्चों को घर जैसा माहौल मिलना तो दूर लेकिन बंद कमरे में रहकर सिर्फ़ घुटन ही महसूस हो रही है। बच्चे के मन की बात न सरकार जान पाती है,न कोचिंग वाले और न ही घर वाले … कोचिंग, मैस  और पढ़ाई में सिमट कर रह जाती है छोटी सी जिंदगी! रात के समय खुली हवा में सांस लेने से पहले गेट बंद होने का डर हमेशा बना रहता है। अगर प्रशासन पूरी मुश्तैदी सुरक्षा की भूमिका निभा रहा है तो फ़िर खुली हवा में सांस लेने का अधिकार बच्चों से क्यों छीना जा रहा है ?

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