यदि मुख्यधारा के समाज को इनका दर्द समझ आता तो वे इन्हें सहर्ष अपनाते- पुष्पा माई
Media Kesari
Jaipur
जयपुर (राजस्थान)- किन्नर समुदाय के लिए "आज़ादी" का अर्थ एक जटिल और बहुआयामी अवधारणा है। यह न केवल कानूनी और सामाजिक अधिकारों की प्राप्ति के बारे में बात करता है, बल्कि स्वायत्तता, आत्मनिर्णय और सामाजिक स्वीकृति की इच्छा के बारे में भी जानकारी प्रदान करता है।
यह कहना है पुष्पा माई का। उन्होंने कहा कि -
"आजादी के इतने वर्षों बाद भी आखिरकार किन्नर समुदाय हाशिए पर क्यों है? यह प्रश्न बारंबार मेरे जहन में उठता है। इसके पीछे छिपे कारकों पर दृष्टि डाले तो शायद एक ही मुख्य समस्या समझ आती है वो है परिवार व समाज की अस्वीकार्यता, लैंगिक विकृति किसी के जीवन को कितना प्रभावित कर सकती है उसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता क्योंकि बहुत प्रचलित कहावत है "जाके पैर ना फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई "ऐसा मैं इसलिए कह रही हूं यदि मुख्यधारा के समाज को इनका दर्द समझ आता तो वे इन्हें सहर्ष अपनाते। इनके कहीं बीच बाज़ार में मिल जाने पर नाक - मुंह ना सिकोड़ते। अक्सर अंतरराष्ट्रीय मंचों से घोषणा होती है इनके लिए कानूनी प्रावधान किए गए है। मेरा सीधा सवाल है समाज के ठेकेदारों से अगर अधिकार दिए गए है तो आज भी यह हाशिए से भी हाशिए पर जीवनयापन करने को विवश क्यों है ? क्यों आज कुछ गिने चुने चेहरे ही हमारे सामने आते है। जबकि जनगणना के मुताबिक इनकी संख्या लगभग लाखों में है। कहा है वो मासूम बच्चे जिन्हें घर- परिवार, समाज ने कूड़े के ढेर में फेक दिया यूं कहूं बहिष्कृत कर दिया। केवल कागज़ी कारवाइयों में इनके अस्तित्व को स्वीकारा गया है। वास्तविकता के ठोस धरातल पर तो यह बच्चे किन गुमनाम गलियों में अपने जीवन की अंतिम सांस लेते है इसका भी संज्ञान लेने वाला कोई नहीं है।"
पुष्पा माई ने आगे कहा कि सर्वविदित है कि मुख्यधारा का समाज निरंतर, शिक्षा, तकनीकी, शल्य चिकित्सा, साहित्य एवं सिनेमा में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। किंतु हाशिए का समाज आज भी सामाजिक स्तर पर कहीं न कहीं अपने मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत है। मुख्यधारा से हाशिए पर बसा यह तृतीय लिंगी समुदाय संवैधानिक दृष्टिकोण से सरकारी कागजों पर अपने वजूद को अंकित करने में तो सफल रहा है। किंतु वास्तविकता के ठोस धरातल पर इस समुदाय के प्रति सामाजिक वैचारिकी में आज भी हिचकिचाहट बनी हुई है।
किन्नर समुदाय का उद्धार करने वाले आज कई चेहरे नज़र आ रहे हैं लेकिन उन बहिष्कृत बच्चों का भविष्य कहां जा रहा है कुछ समझ नहीं आ रहा है। ऐसा नहीं है कि इनकी स्थिति में कोई भी सुधार नहीं है लेकिन जितनाh व्यापक फलक कागजों पर मिला है उतना वास्तविक जीवन में नहीं।
घोर विडंबना की बात यह है कि आज़ादी का जश्न (ध्वजारोहण) मनाने के बाद सभी खुशी- खुशी अपने घरों को लौट जाएंगे। लेकिन इस समुदाय की घर वापसी कब होगी यह प्रश्न प्राय : मेरी अंतरात्मा को झकझोर देता है।
मेरी सभ्य समाज से गुजारिश है कि एक मुहिम ऐसी चलाई जाए जिससे इनकी घर वापसी करवाई जाए।
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